Sunday 21 June 2015

क्या मैं.. आकाश नहीं छू सकती?






जब तक कि रुक नहीँ जाता
बेटियोँ के संग
भेदभाव का सिलसिला
मैँ पूंछती हूं..मैँ पूंछूंगी और पूंछती ही रहूंगी,
मैँ एक बेटी हूं
क्या बेटी होना कोई गुनाह है?
क्या मैँ माँ-बाप की
आशाओँ को
पूरा नही कर सकती?
क्या मैँ उनकी कसौटी पर
खरा नहीँ उतर सकती?
क्या मैँ वह नहीँ कर सकती..
जो एक बेटा करता है
माँ-बाप,भाई,बहन
और समाज के लिए?
क्या मैँ अपनी मेहनत से
इस बंजर जमीन को
हरा भरा नहीँ कर सकती?
क्या मैँ
किसी के जीवन मेँ
प्यार के रंग नहीँ भर सकती?
क्योँ बेटी को आज भी
बेटे के बराबर
नहीँ समझा जाता?
क्योँ आधुनिकता के
इस युग मेँ
एक बेटी को
मार दिया जाता है
जन्म से पहले ही बोझ समझकर?
मैँ फिर पूंछती हूं एक बार
क्या मैँ....आकाश नहीँ छू सकती?
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_आबिद अली मंसूरी
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